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<br>सदा रहहि अपनपौ दुराएँ। सब बिधि कुसल कुबेष बनाएँ॥१॥
<br>तेहि तें कहहि संत श्रुति टेरें। परम अकिंचन प्रिय हरि केरें॥
<br>तुम्ह सम अधन भिखारि अगेहा। होत बिरंचि सिवहि संदेहा॥संदेहा॥२॥
<br>जोसि सोसि तव चरन नमामी। मो पर कृपा करिअ अब स्वामी॥
<br>सहज प्रीति भूपति कै देखी। आपु बिषय बिस्वास बिसेषी॥बिसेषी॥३॥
<br>सब प्रकार राजहि अपनाई। बोलेउ अधिक सनेह जनाई॥
<br>सुनु सतिभाउ कहउँ महिपाला। इहाँ बसत बीते बहु काला॥काला॥४॥
<br>दो०-अब लगि मोहि न मिलेउ कोउ मैं न जनावउँ काहु।
<br>लोकमान्यता अनल सम कर तप कानन दाहु॥१६१(क)॥
<br>प्रभु जानत सब बिनहिं जनाएँ। कहहु कवनि सिधि लोक रिझाएँ॥१॥
<br>तुम्ह सुचि सुमति परम प्रिय मोरें। प्रीति प्रतीति मोहि पर तोरें॥
<br>अब जौं तात दुरावउँ तोही। दारुन दोष घटइ अति मोही॥मोही॥२॥
<br>जिमि जिमि तापसु कथइ उदासा। तिमि तिमि नृपहि उपज बिस्वासा॥
<br>देखा स्वबस कर्म मन बानी। तब बोला तापस बगध्यानी॥बगध्यानी॥३॥<br>नाम हमार एकतनु भाई। सुनि नृप बोले बोलेउ पुनि सिरु नाई॥<br>कहहु नाम कर अरथ बखानी। मोहि सेवक अति आपन जानी॥जानी॥४॥
<br>दो०-आदिसृष्टि उपजी जबहिं तब उतपति भै मोरि।
<br>नाम एकतनु हेतु तेहि देह न धरी बहोरि॥१६२॥
<br>तपबल तें जग सृजइ बिधाता। तपबल बिष्नु भए परित्राता॥१॥
<br>तपबल संभु करहिं संघारा। तप तें अगम न कछु संसारा॥
<br>भयउ नृपहि सुनि अति अनुरागा। कथा पुरातन कहै सो लागा॥लागा॥२॥
<br>करम धरम इतिहास अनेका। करइ निरूपन बिरति बिबेका॥
<br>उदभव पालन प्रलय कहानी। कहेसि अमित आचरज बखानी॥बखानी॥३॥
<br>सुनि महीप तापस बस भयऊ। आपन नाम कहन तब लयऊ॥
<br>कह तापस नृप जानउँ तोही। कीन्हेहु कपट लाग भल मोही॥मोही॥४॥
<br>सो०-सुनु महीस असि नीति जहँ तहँ नाम न कहहिं नृप।
<br>मोहि तोहि पर अति प्रीति सोइ चतुरता बिचारि तव॥१६३॥
<br>गुर प्रसाद सब जानिअ राजा। कहिअ न आपन जानि अकाजा॥१॥
<br>देखि तात तव सहज सुधाई। प्रीति प्रतीति नीति निपुनाई॥
<br>उपजि परी ममता मन मोरें। कहउँ कथा निज पूछे तोरें॥तोरें॥२॥
<br>अब प्रसन्न मैं संसय नाहीं। मागु जो भूप भाव मन माहीं॥
<br>सुनि सुबचन भूपति हरषाना। गहि पद बिनय कीन्हि बिधि नाना॥नाना॥३॥
<br>कृपासिंधु मुनि दरसन तोरें। चारि पदारथ करतल मोरें॥
<br>प्रभुहि तथापि प्रसन्न बिलोकी। मागि अगम बर होउँ असोकी॥असोकी॥४॥
<br>दो०-जरा मरन दुख रहित तनु समर जितै जनि कोउ।
<br>एकछत्र रिपुहीन महि राज कलप सत होउ॥१६४॥
<br>कालउ तुअ पद नाइहि सीसा। एक बिप्रकुल छाड़ि महीसा॥१॥
<br>तपबल बिप्र सदा बरिआरा। तिन्ह के कोप न कोउ रखवारा॥
<br>जौं बिप्रन्ह बस करहु नरेसा। तौ तुअ बस बिधि बिष्नु महेसा॥महेसा॥२॥
<br>चल न ब्रह्मकुल सन बरिआई। सत्य कहउँ दोउ भुजा उठाई॥
<br>बिप्र श्राप बिनु सुनु महिपाला। तोर नास नहि कवनेहुँ काला॥काला॥३॥
<br>हरषेउ राउ बचन सुनि तासू। नाथ न होइ मोर अब नासू॥
<br>तव प्रसाद प्रभु कृपानिधाना। मो कहुँ सर्ब काल कल्याना॥कल्याना॥४॥
<br>दो०-एवमस्तु कहि कपटमुनि बोला कुटिल बहोरि।
<br>मिलब हमार भुलाब निज कहहु त हमहि न खोरि॥१६५॥
<br>छठें श्रवन यह परत कहानी। नास तुम्हार सत्य मम बानी॥१॥
<br>यह प्रगटें अथवा द्विजश्रापा। नास तोर सुनु भानुप्रतापा॥
<br>आन उपायँ निधन तव नाहीं। जौं हरि हर कोपहिं मन माहीं॥माहीं॥२॥
<br>सत्य नाथ पद गहि नृप भाषा। द्विज गुर कोप कहहु को राखा॥
<br>राखइ गुर जौं कोप बिधाता। गुर बिरोध नहिं कोउ जग त्राता॥त्राता॥३॥
<br>जौं न चलब हम कहे तुम्हारें। होउ नास नहिं सोच हमारें॥
<br>एकहिं डर डरपत मन मोरा। प्रभु महिदेव श्राप अति घोरा॥घोरा॥४॥
<br>दो०-होहिं बिप्र बस कवन बिधि कहहु कृपा करि सोउ।
<br>तुम्ह तजि दीनदयाल निज हितू न देखउँ कोउ॥१६६॥
<br>अहइ एक अति सुगम उपाई। तहाँ परंतु एक कठिनाई॥१॥
<br>मम आधीन जुगुति नृप सोई। मोर जाब तव नगर न होई॥
<br>आजु लगें अरु जब तें भयऊँ। काहू के गृह ग्राम न गयऊँ॥गयऊँ॥२॥
<br>जौं न जाउँ तव होइ अकाजू। बना आइ असमंजस आजू॥
<br>सुनि महीस बोलेउ मृदु बानी। नाथ निगम असि नीति बखानी॥बखानी॥३॥
<br>बड़े सनेह लघुन्ह पर करहीं। गिरि निज सिरनि सदा तृन धरहीं॥
<br>जलधि अगाध मौलि बह फेनू। संतत धरनि धरत सिर रेनू॥रेनू॥४॥
<br>दो०- अस कहि गहे नरेस पद स्वामी होहु कृपाल।
<br>मोहि लागि दुख सहिअ प्रभु सज्जन दीनदयाल॥१६७॥
<br>सत्य कहउँ भूपति सुनु तोही। जग नाहिन दुर्लभ कछु मोही॥१॥
<br>अवसि काज मैं करिहउँ तोरा। मन तन बचन भगत तैं मोरा॥
<br>जोग जुगुति तप मंत्र प्रभाऊ। फलइ तबहिं जब करिअ दुराऊ॥दुराऊ॥२॥
<br>जौं नरेस मैं करौं रसोई। तुम्ह परुसहु मोहि जान न कोई॥
<br>अन्न सो जोइ जोइ भोजन करई। सोइ सोइ तव आयसु अनुसरई॥अनुसरई॥३॥
<br>पुनि तिन्ह के गृह जेवँइ जोऊ। तव बस होइ भूप सुनु सोऊ॥
<br>जाइ उपाय रचहु नृप एहू। संबत भरि संकलप करेहू॥करेहू॥४॥
<br>दो०-नित नूतन द्विज सहस सत बरेहु सहित परिवार।
<br>मैं तुम्हरे संकलप लगि दिनहिं करिब जेवनार॥१६८॥
<br>करिहहिं बिप्र होम मख सेवा। तेहिं प्रसंग सहजेहिं बस देवा॥१॥
<br>और एक तोहि कहऊँ लखाऊ। मैं एहि बेष न आउब काऊ॥
<br>तुम्हरे उपरोहित कहुँ राया। हरि आनब मैं करि निज माया॥माया॥२॥
<br>तपबल तेहि करि आपु समाना। रखिहउँ इहाँ बरष परबाना॥
<br>मैं धरि तासु बेषु सुनु राजा। सब बिधि तोर सँवारब काजा॥काजा॥३॥
<br>गै निसि बहुत सयन अब कीजे। मोहि तोहि भूप भेंट दिन तीजे॥
<br>मैं तपबल तोहि तुरग समेता। पहुँचेहउँ सोवतहि निकेता॥निकेता॥४॥
<br>दो०-मैं आउब सोइ बेषु धरि पहिचानेहु तब मोहि।
<br>जब एकांत बोलाइ सब कथा सुनावौं तोहि॥१६९॥
<br>श्रमित भूप निद्रा अति आई। सो किमि सोव सोच अधिकाई॥१॥
<br>कालकेतु निसिचर तहँ आवा। जेहिं सूकर होइ नृपहि भुलावा॥
<br>परम मित्र तापस नृप केरा। जानइ सो अति कपट घनेरा॥घनेरा॥२॥
<br>तेहि के सत सुत अरु दस भाई। खल अति अजय देव दुखदाई॥
<br>प्रथमहि भूप समर सब मारे। बिप्र संत सुर देखि दुखारे॥दुखारे॥३॥<br>तेहिं खल पाछिल बयरु सँभरा। सँभारा। तापस नृप मिलि मंत्र बिचारा॥<br>जेहि रिपु छय सोइ रचेन्हि उपाऊ। भावी बस न जान कछु राऊ॥राऊ॥४॥
<br>दो०-रिपु तेजसी अकेल अपि लघु करि गनिअ न ताहु।
<br>अजहुँ देत दुख रबि ससिहि सिर अवसेषित राहु॥१७०॥
<br>मित्रहि कहि सब कथा सुनाई। जातुधान बोला सुख पाई॥१॥
<br>अब साधेउँ रिपु सुनहु नरेसा। जौं तुम्ह कीन्ह मोर उपदेसा॥
<br>परिहरि सोच रहहु तुम्ह सोई। बिनु औषध बिआधि बिधि खोई॥खोई॥२॥
<br>कुल समेत रिपु मूल बहाई। चौथे दिवस मिलब मैं आई॥
<br>तापस नृपहि बहुत परितोषी। चला महाकपटी अतिरोषी॥अतिरोषी॥३॥
<br>भानुप्रतापहि बाजि समेता। पहुँचाएसि छन माझ निकेता॥
<br>नृपहि नारि पहिं सयन कराई। हयगृहँ बाँधेसि बाजि बनाई॥बनाई॥४॥
<br>दो०-राजा के उपरोहितहि हरि लै गयउ बहोरि।
<br>लै राखेसि गिरि खोह महुँ मायाँ करि मति भोरि॥१७१॥
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