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मात देना नहीं जानतीं / केदारनाथ अग्रवाल
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11:56, 14 अगस्त 2010
|रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल
}}
<poem>
घर की फुटन में पड़ी औरतें
ज़िन्दगी काटती हैं
मर्द की मौह्ब्बत में मिला
काल का काला नमक चाटती हैं
जीती ज़रूर हैं
जीना नहीं जानतीं;
मात खातीं-
मात देना नहीं जानतीं
</poem>
अनिल जनविजय
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