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<br>चौ०-देखी बिपुल बिकल बैदेही। निमिष बिहात कलप सम तेही॥
<br>तृषित बारि बिनु जो तनु त्यागा। मुएँ करइ का सुधा तड़ागा॥तड़ागा॥१॥
<br>का बरषा सब कृषी सुखानें। समय चुकें पुनि का पछितानें॥
<br>अस जियँ जानि जानकी देखी। प्रभु पुलके लखि प्रीति बिसेषी॥बिसेषी॥२॥
<br>गुरहि प्रनामु मनहि मन कीन्हा। अति लाघवँ उठाइ धनु लीन्हा॥
<br>दमकेउ दामिनि जिमि जब लयऊ। पुनि नभ धनु मंडल सम भयऊ॥भयऊ॥३॥
<br>लेत चढ़ावत खैंचत गाढ़ें। काहुँ न लखा देख सबु ठाढ़ें॥
<br>तेहि छन राम मध्य धनु तोरा। भरे भुवन धुनि घोर कठोरा॥कठोरा॥४॥
<br>छं०-भरे भुवन घोर कठोर रव रबि बाजि तजि मारगु चले।
<br>चिक्करहिं दिग्गज डोल महि अहि कोल कूरुम कलमले॥
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<br>चौ०-प्रभु दोउ चापखंड महि डारे। देखि लोग सब भए सुखारे॥
<br>कौसिकरुप पयोनिधि पावन। प्रेम बारि अवगाहु सुहावन॥सुहावन॥१॥
<br>रामरूप राकेसु निहारी। बढ़त बीचि पुलकावलि भारी॥
<br>बाजे नभ गहगहे निसाना। देवबधू नाचहिं करि गाना॥गाना॥२॥
<br>ब्रह्मादिक सुर सिद्ध मुनीसा। प्रभुहि प्रसंसहि देहिं असीसा॥
<br>बरिसहिं सुमन रंग बहु माला। गावहिं किंनर गीत रसाला॥रसाला॥३॥
<br>रही भुवन भरि जय जय बानी। धनुषभंग धुनि जात न जानी॥
<br>मुदित कहहिं जहँ तहँ नर नारी। भंजेउ राम संभुधनु भारी॥भारी॥४॥
<br>दो०-बंदी मागध सूतगन बिरुद बदहिं मतिधीर।
<br>करहिं निछावरि लोग सब हय गय धन मनि चीर॥२६२॥
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<br>चौ०-झाँझि मृदंग संख सहनाई। भेरि ढोल दुंदुभी सुहाई॥
<br>बाजहिं बहु बाजने सुहाए। जहँ तहँ जुबतिन्ह मंगल गाए॥गाए॥१॥
<br>सखिन्ह सहित हरषी अति रानी। सूखत धान परा जनु पानी॥
<br>जनक लहेउ सुखु सोचु बिहाई। पैरत थकें थाह जनु पाई॥पाई॥२॥
<br>श्रीहत भए भूप धनु टूटे। जैसें दिवस दीप छबि छूटे॥
<br>सीय सुखहि बरनिअ केहि भाँती। जनु चातकी पाइ जलु स्वाती॥स्वाती॥३॥
<br>रामहि लखनु बिलोकत कैसें। ससिहि चकोर किसोरकु जैसें॥
<br>सतानंद तब आयसु दीन्हा। सीताँ गमनु राम पहिं कीन्हा॥कीन्हा॥४॥
<br>दो०-संग सखीं सुदंर चतुर गावहिं मंगलचार।
<br>गवनी बाल मराल गति सुषमा अंग अपार॥२६३॥
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<br>सखिन्ह मध्य सिय सोहति कैसे। छबिगन मध्य महाछबि जैसें॥
<br>कर सरोज जयमाल सुहाई। बिस्व बिजय सोभा जेहिं छाई॥छाई॥१॥
<br>तन सकोचु मन परम उछाहू। गूढ़ प्रेमु लखि परइ न काहू॥
<br>जाइ समीप राम छबि देखी। रहि जनु कुँअरि चित्र अवरेखी॥अवरेखी॥२॥
<br>चतुर सखीं लखि कहा बुझाई। पहिरावहु जयमाल सुहाई॥
<br>सुनत जुगल कर माल उठाई। प्रेम बिबस पहिराइ न जाई॥जाई॥३॥
<br>सोहत जनु जुग जलज सनाला। ससिहि सभीत देत जयमाला॥
<br>गावहिं छबि अवलोकि सहेली। सियँ जयमाल राम उर मेली॥मेली॥४॥
<br>सो०-रघुबर उर जयमाल देखि देव बरिसहिं सुमन।
<br>सकुचे सकल भुआल जनु बिलोकि रबि कुमुदगन॥२६४॥
<br>पुर अरु ब्योम बाजने बाजे। खल भए मलिन साधु सब राजे॥
<br>सुर किंनर नर नाग मुनीसा। जय जय जय कहि देहिं असीसा॥असीसा॥१॥
<br>नाचहिं गावहिं बिबुध बधूटीं। बार बार कुसुमांजलि छूटीं॥
<br>जहँ तहँ बिप्र बेदधुनि करहीं। बंदी बिरदावलि उच्चरहीं॥उच्चरहीं॥२॥
<br>महि पाताल नाक जसु ब्यापा। राम बरी सिय भंजेउ चापा॥
<br>करहिं आरती पुर नर नारी। देहिं निछावरि बित्त बिसारी॥बिसारी॥३॥
<br>सोहति सीय राम कै जौरी। छबि सिंगारु मनहुँ एक ठोरी॥
<br>सखीं कहहिं प्रभुपद गहु सीता। करति न चरन परस अति भीता॥भीता॥४॥
<br>दो०-गौतम तिय गति सुरति करि नहिं परसति पग पानि।
<br>मन बिहसे रघुबंसमनि प्रीति अलौकिक जानि॥२६५॥
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<br>तब सिय देखि भूप अभिलाषे। कूर कपूत मूढ़ मन माखे॥
<br>उठि उठि पहिरि सनाह अभागे। जहँ तहँ गाल बजावन लागे॥लागे॥१॥
<br>लेहु छड़ाइ सीय कह कोऊ। धरि बाँधहु नृप बालक दोऊ॥
<br>तोरें धनुषु चाड़ नहिं सरई। जीवत हमहि कुअँरि को बरई॥बरई॥२॥
<br>जौं बिदेहु कछु करै सहाई। जीतहु समर सहित दोउ भाई॥
<br>साधु भूप बोले सुनि बानी। राजसमाजहि लाज लजानी॥लजानी॥३॥
<br>बलु प्रतापु बीरता बड़ाई। नाक पिनाकहि संग सिधाई॥
<br>सोइ सूरता कि अब कहुँ पाई। असि बुधि तौ बिधि मुहँ मसि लाई॥लाई॥४॥
<br>दो०-देखहु रामहि नयन भरि तजि इरिषा मदु कोहु।
<br>लखन रोषु पावकु प्रबल जानि सलभ जनि होहु॥२६६॥
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<br>बैनतेय बलि जिमि चह कागू। जिमि ससु चहै नाग अरि भागू॥
<br>जिमि चह कुसल अकारन कोही। सब संपदा चहै सिवद्रोही॥सिवद्रोही॥१॥
<br>लोभी लोलुप कल कीरति चहई। अकलंकता कि कामी लहई॥
<br>हरि पद बिमुख परम गति चाहा। तस तुम्हार लालचु नरनाहा॥नरनाहा॥२॥
<br>कोलाहलु सुनि सीय सकानी। सखीं लवाइ गईं जहँ रानी॥
<br>रामु सुभायँ चले गुरु पाहीं। सिय सनेहु बरनत मन माहीं॥माहीं॥३॥
<br>रानिन्ह सहित सोचबस सीया। अब धौं बिधिहि काह करनीया॥
<br>भूप बचन सुनि इत उत तकहीं। लखनु राम डर बोलि न सकहीं॥सकहीं॥४॥
<br>दो०-अरुन नयन भृकुटी कुटिल चितवत नृपन्ह सकोप।
<br>मनहुँ मत्त गजगन निरखि सिंघकिसोरहि चोप॥२६७॥
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<br>खरभरु देखि बिकल पुर नारीं। सब मिलि देहिं महीपन्ह गारीं॥
<br>तेहिं अवसर सुनि सिव धनु भंगा। आयसु भृगुकुल कमल पतंगा॥पतंगा॥१॥
<br>देखि महीप सकल सकुचाने। बाज झपट जनु लवा लुकाने॥
<br>गौरि सरीर भूति भल भ्राजा। भाल बिसाल त्रिपुंड बिराजा॥बिराजा॥२॥
<br>सीस जटा ससिबदनु सुहावा। रिसबस कछुक अरुन होइ आवा॥
<br>भृकुटी कुटिल नयन रिस राते। सहजहुँ चितवत मनहुँ रिसाते॥रिसाते॥३॥
<br>बृषभ कंध उर बाहु बिसाला। चारु जनेउ माल मृगछाला॥
<br>कटि मुनि बसन तून दुइ बाँधें। धनु सर कर कुठारु कल काँधें॥काँधें॥४॥
<br>दो०-सांत बेषु करनी कठिन बरनि न जाइ सरुप।
<br>धरि मुनितनु जनु बीर रसु आयउ जहँ सब भूप॥२६८॥
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<br>देखत भृगुपति बेषु कराला। उठे सकल भय बिकल भुआला॥
<br>पितु समेत कहि कहि निज नामा। लगे करन सब दंड प्रनामा॥प्रनामा॥१॥
<br>जेहि सुभायँ चितवहिं हितु जानी। सो जानइ जनु आइ खुटानी॥
<br>जनक बहोरि आइ सिरु नावा। सीय बोलाइ प्रनामु करावा॥करावा॥२॥
<br>आसिष दीन्हि सखीं हरषानीं। निज समाज लै गई सयानीं॥
<br>बिस्वामित्रु मिले पुनि आई। पद सरोज मेले दोउ भाई॥भाई॥३॥
<br>रामु लखनु दसरथ के ढोटा। दीन्हि असीस देखि भल जोटा॥
<br>रामहि चितइ रहे थकि लोचन। रूप अपार मार मद मोचन॥मोचन॥४॥
<br>दो०-बहुरि बिलोकि बिदेह सन कहहु काह अति भीर॥
<br>पूछत जानि अजान जिमि ब्यापेउ कोपु सरीर॥२६९॥
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<br>समाचार कहि जनक सुनाए। जेहि कारन महीप सब आए॥
<br>सुनत बचन फिरि अनत निहारे। देखे चापखंड महि डारे॥डारे॥१॥
<br>अति रिस बोले बचन कठोरा। कहु जड़ जनक धनुष कै तोरा॥
<br>बेगि देखाउ मूढ़ न त आजू। उलटउँ महि जहँ लहि तव राजू॥राजू॥२॥
<br>अति डरु उतरु देत नृपु नाहीं। कुटिल भूप हरषे मन माहीं॥
<br>सुर मुनि नाग नगर नर नारी॥सोचहिं सकल त्रास उर भारी॥भारी॥३॥
<br>मन पछिताति सीय महतारी। बिधि अब सँवरी बात बिगारी॥
<br>भृगुपति कर सुभाउ सुनि सीता। अरध निमेष कलप सम बीता॥बीता॥४॥
<br>दो०-सभय बिलोके लोग सब जानि जानकी भीरु।
<br>हृदयँ न हरषु बिषादु कछु बोले श्रीरघुबीरु॥२७०॥
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<br>नाथ संभुधनु भंजनिहारा। होइहि केउ एक दास तुम्हारा॥
<br>आयसु काह कहिअ किन मोही। सुनि रिसाइ बोले मुनि कोही॥कोही॥१॥
<br>सेवकु सो जो करै सेवकाई। अरि करनी करि करिअ लराई॥
<br>सुनहु राम जेहिं सिवधनु तोरा। सहसबाहु सम सो रिपु मोरा॥मोरा॥२॥
<br>सो बिलगाउ बिहाइ समाजा। न त मारे जैहहिं सब राजा॥
<br>सुनि मुनि बचन लखन मुसुकाने। बोले परसुधरहि अपमाने॥अपमाने॥३॥
<br>बहु धनुहीं तोरीं लरिकाईं। कबहुँ न असि रिस कीन्हि गोसाईं॥
<br>एहि धनु पर ममता केहि हेतू। सुनि रिसाइ कह भृगुकुलकेतू॥भृगुकुलकेतू॥४॥
<br>दो०-रे नृप बालक कालबस बोलत तोहि न सँमार॥
<br>धनुही सम तिपुरारि धनु बिदित सकल संसार॥२७१॥
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