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13:27, 15 अगस्त 2010 नाम - रूप के भेद पर कभी किया है ग़ौर ?
नाम मिला कुछ और तो शक्ल - अक्ल कुछ और॥
शक्ल - अक्ल कुछ और नयनसुख देखे काने ।
बाबू सुंदरलाल बनाये ऐंचकताने ॥
कहँ ‘ काका ' कवि , दयाराम जी मारें मच्छर ।
विद्याधर को भैंस बराबर काला अक्षर ॥
मुंशी चंदालाल का तारकोल सा रूप ।
श्यामलाल का रंग है जैसे खिलती धूप ॥
जैसे खिलती धूप , सजे बुश्शर्ट पैंट में -
ज्ञानचंद छै बार फ़ेल हो गये टैंथ में ॥
कहँ ‘ काका ' ज्वालाप्रसाद जी बिल्कुल ठंडे ।
पंडित शांतिस्वरूप चलाते देखे डंडे ॥
देख अशर्फ़ीलाल के घर में टूटी खाट ।
सेठ भिखारीदास के मील चल रहे आठ ॥
मील चल रहे आठ , करम के मिटें न लेखे ।
धनीराम जी हमने प्रायः निर्धन देखे ॥
कहँ ‘ काका ' कवि , दूल्हेराम मर गये कुँवारे ।
बिना प्रियतमा तड़पें प्रीतमसिंह बेचारे ॥
पेट न अपना भर सके जीवन भर जगपाल ।
बिना सूँ ड़ के सैकड़ों मिलें गणेशीलाल ॥
मिलें गणेशीलाल , पैंट की क्रीज़ सम्हारी ।
बैग कुली को दिया , चले मिस्टर गिरधारी ॥
कहँ ‘ काका ' कविराय , करें लाखों का सट्टा ।
नाम हवेलीराम किराये का है अट्टा ॥
चतुरसेन बुद्धू मिले , बुद्धसेन निर्बुद्ध ।
श्री आनंदीलाल जी रहें सर्वदा क्रुद्ध ॥
रहें सर्वदा क्रुद्ध , मास्टर चक्कर खाते ।
इंसानों को मुंशी तोताराम पढ़ाते ॥
कहँ ‘ काका ', बलवीर सिंह जी लटे हुये हैं ।
थानसिंह के सारे कपड़े फटे हुये हैं ॥
बेच रहे हैं कोयला , लाला हीरालाल ।
सूखे गंगाराम जी , रूखे मक्खनलाल ॥
रूखे मक्खनलाल , झींकते दादा - दादी ।
निकले बेटा आशाराम निराशावादी ॥
कहँ ‘काका' कवि, भीमसेन पिद्दी से दिखते ।
कविवर ‘दिनकर’ छायावदी कविता लिखते ॥
तेजपाल जी भोथरे , मरियल से मलखान ।
लाला दानसहाय ने करी न कौड़ी दान ॥
करी न कौड़ी दान , बात अचरज की भाई ।
वंशीधर ने जीवन - भर वंशी न बजाई ॥
कहँ ‘ काका ' कवि , फूलचंद जी इतने भारी ।
दर्शन करते ही टूट जाये कुर्सी बेचारी ॥
खट्टे - खारी - खुरखुरे मृदुलाजी के बैन ।
मृगनयनी के देखिये चिलगोजा से नैन ॥
चिलगोजा से नैन, शांता करतीं दंगा ।
नल पर न्हाती देखीं हमने यमुना, गंगा ॥
कहँ ‘ काका ' कवि, लज्जावती दहाड़ रही हैं ।
दर्शन देवी लंबा घूँघट काढ़ रही हैं ॥
अज्ञानी निकले निरे पंडित ज्ञानीराम ।
कौशल्या के पुत्र का रक्खा दशरथ नाम ॥
रक्खा दशरथ नाम , मेल क्या खूब मिलाया ।
दूल्हा संतराम को आई दुल्हन माया ॥
‘काका' कोई - कोई रिश्ता बड़ा निकम्मा ।
पार्वती देवी हैं शिवशंकर की अम्मा ॥
दूर युद्ध से भागते नाम रखा रणधीर ।
भागचन्द की आज तक सोई है तकदीर ॥
सोई है तकदीर, बहुत से देखे भाले ।
निकले प्रिय सुखदेव सभी दु:ख देने वाले ॥
कह काका कविराय आँकड़े बिलकुल सच्चे ।
बालकराम ब्रह्मचारी के बारह बच्चे ॥
आकुल व्याकुल दीखते शर्मा परमानन्द ।
कार्य अधूरे छोड़कर भागे पूरनचँद ॥
भागे पूरनचँद, अमर जी मरते देखे ।
मिश्रीबाबू कड़वी बातें करते देखे ॥
कह काका भण्डारासिंह जी रीते-थोथे ।
बीत गया जीवन विनोद का रोते-धोते ॥
शीला जीजी लड़ रही, सरला करती शोर ।
कुसुम, कमल, पुष्पा, सुमन, निकली बड़ी कठोर ॥
निकली बड़ी कठोर, निर्मला मन की मैली ।
सुधा सहेली अमृताबाई सुनी विषैली ॥
कह काका कवि बाबूजी क्या देखा तुमने ?
बल्ली जैसी मिस लल्ली देखीं हैं हमने ॥
कलयुग में कैसे निभे पति पत्नी क साथ ।
चपलादेवी को मिले बाबू भोलेनाथ ॥
बाबू भोलेनाथ कहाँ तक कहें कहानी ।
पंडित रामचंद्र की पत्नी राधारानी ॥
काका लक्ष्मीनारायन की गृहणी रीता ।
कृष्णचंद्र की वाइफ बन कर आई सीता ॥
पूँछ न आधी इंच भी कहलाते हनुमान ।
मिले न अर्जुनलाल के घर में तीर कमान ॥
घर में तीर कमान, बदी करता है नेका ।
तीर्थराज ने कभी न इलाहबाद देखा ॥
सत्यपाल काका की रक़म डकार चुके हैं ।
विजयसिंह दस बार इलेक्शन हार चुके हैं ॥
सुखीरामजी अति दु:खी दु:खीराम अलमस्त ।
हिकमतराय हकीमजी रहे सदा अस्वस्थ ॥
रहे सदा अस्वस्थ, प्रभु की देखो माया ।
प्रेमचन्द में रत्तीभर भी प्रेम न पाया ॥
कह काका जब वृत-उपवासों के दिन आते ।
त्यागी साहब अन्न त्याग कर रिश्वत खाते ॥
रामराज के घाट पर आता जब भूचाल ।
लुढ़क जाएँ श्रीतख्तमल बैठे घूरेलाल ॥
बैठे घूरेलाल रंग किस्मत दिखलाती ।
इत्रसिंह के कपड़ों में से बदबू आती ॥
कह काका गम्भीरसिंह मुँह फाड़ रहे हैं ।
महाराज लाला की गद्दी झाड़ रहे हैं ॥
दूधनाथ जी पी रहे सपरेटा की चाय ।
गुरु गोपालप्रसाद के घर में मिली न गाय ॥
घर में मिली न गाय, समझ लो असली कारण ।
माखन छोड़ डालडा खाते बृजनारायण ॥
काका प्यारेलाल सदा गुर्राते देखे ।
हरिश्चन्द्र जी झूठे केस लड़ाते देखे ॥
रूपराम के रूप की निन्दा करते मित्र ।
चकित रह गए देख कर कामराज का चित्र ॥
कामराज का चित्र थक गए करके विनती ।
यादराम को याद न होती सौ तक गिनती ॥
कह काका कविराय बड़े निकले बेदर्दी ।
भरतराम ने चरतराम पर नालिश कर दी ॥
नाम धाम से काम का क्या है सामञ्जस्य ?
किसी पार्टी के नहीं झंडाराम सदस्य ॥
झंडाराम सदस्य, भाग्य की मिले न रेखा ।
स्वर्णसिंह के हाथ कड़ा लोहे का देखा ॥
कह काका कंठस्थ करो ये बड़े काम की ।
माला पूरी हुई एक सौ आठ नाम की ॥