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जो बज़ाहिर शिकस्त-सा इक साज़ था
वह करोड़ों दुखे-दिल की आवाज़ थीथा राह में गिरते-पड़ते सँभलते हुएसाम्राजी से तेवर बदलते हुए आ गए ज़िन्दगी के नए मोड़ परमौत के रास्ते से टहलते हुए बनके बादल उठे, देश पर छा गएप्रेम रस, सूखे खेतों पे बरसा गए अब वो जनता की सम्पत हैं, धनपत नहींसिर्फ़ दो-चार के घर की दौलत नहीं
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