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<poem>
गुलामी सब अभी तक ढो रहे हैं

और इस पर भी सभी खुश हो रहे हैं


घरों तक पैठ है दुश्मन की लेकिन

हमारे शहर में सब सो रहे हैं


बुलंदी, रौशनी, सम्मान, दौलत

ये सारे फायदे किस को रहे हैं


कटाई का समय सर पर खड़ा है

किसान अब खेत में क्या बो रहे हैं


दरिन्दे भी, किसी पल आदमी भी

यहाँ चेहरे सभी के दो रहे हैं


सुना है आप हैं बेदाग़ अब तक

तो दामन फिर भला क्यों धो रहे हैं


अभी तक रो रहे थे बंदिशों पर

अब आज़ादी का रोना रो रहे हैं


हमें छालों का दुखडा मत सुनाओ

सफर में साथ हम भी तो रहे हैं


अंधेरों ने किया दुनिया पे कब्जा

उजाले अपनी ताक़त खो रहे है<poem/>