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08:49, 18 अगस्त 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रविकांत अनमोल
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<poem>
किसी राधा के मोहन हो गए हो
किसी के दिल की धड़कन हो गए हो
मिरा आंगन महक उठ्ठा है तुमसे
मिरे आंगन का चंदन हो गए हो
हमें कल तक दिलो-जां मानते थे
हमारी जां के दुश्मन हो गए हो
तुम्हीं में बस गए हैं सारे अरमां
हमारे मन का आंगन हो गए हो
तुम्हें बनना था चलने की तमन्ना
तुम्हीं पैरों का बंधन हो गए हो
</poem>