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देवालय की घंटियाँ / अशोक लव

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<poem>
नील नभ
छा गए श्यामल मेघ
नर्तकी के घुंघरुओं-सी
बजने लगी बूँदें
हुआ आरम्भ जल-नृत्य

स्मृतियों के आकाश पर
बजने लगे घुंघुरू
हुआ था यूँ ही जल नृत्य
कौंधी थी चपला
तुम्हारा रूप बन
प्रकाशमय हो गया था जीवन
हुआ शंखनाद जैसे
बज उठी घंटियाँ देवालय की
हुई थी पूरी साध
अतृप्त मन की

चल पड़ा करने उद्यापन मन
हुए थे फलीभूत व्रत
प्रश्नों के गावं छूट गए थे पीछे
बिछ गई थी दंडवत देह
देव सम्मुख/अंजुरी में गिर गया था
आशीष पुष्प
ह्रदय में भर गई थी गंध
हुई चिर साध पूरी
जल-नृत्य किया था मन ने उस दिन
</poem>
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