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12:28, 28 अगस्त 2010 मुहाजिर हैं मगर हम एक दुनिया छोड़ आए हैं<br />
तुम्हारे पास जितना है हम उतना छोड़ आए हैं<br /><br />
कहानी का ये हिस्सा आजतक सब से छुपाया है<br />
कि हम मिट्टी की ख़ातिर अपना सोना छोड़ आए हैं<br /><br />
नई दुनिया बसा लेने की इक कमज़ोर चाहत में<br />
पुराने घर की दहलीज़ों को सूना छोड़ आए हैं<br /><br />
अक़ीदत से कलाई पर जो इक बच्ची ने बाँधी थी<br />
वो राखी छोड़ आए हैं वो रिश्ता छोड़ आए हैं<br /><br />
किसी की आरज़ू के पाँवों में ज़ंजीर डाली थी<br />
किसी की ऊन की तीली में फंदा छोड़ आए हैं<br /><br />
पकाकर रोटियाँ रखती थी माँ जिसमें सलीक़े से<br />
निकलते वक़्त वो रोटी की डलिया छोड़ आए हैं<br /><br />
जो इक पतली सड़क उन्नाव से मोहान जाती है<br />
वहीं हसरत के ख़्वाबों को भटकता छोड़ आए हैं<br /><br />
यक़ीं आता नहीं, लगता है कच्ची नींद में शायद<br />
हम अपना घर गली अपना मोहल्ला छोड़ आए हैं<br /><br />
हमारे लौट आने की दुआएँ करता रहता है<br />
हम अपनी छत पे जो चिड़ियों का जत्था छोड़ आए हैं<br /><br />
हमें हिजरत की इस अन्धी गुफ़ा में याद आता है<br />
अजन्ता छोड़ आए हैं एलोरा छोड़ आए हैं<br /><br />
सभी त्योहार मिलजुल कर मनाते थे वहाँ जब थे<br />
दिवाली छोड़ आए हैं दशहरा छोड़ आए हैं<br /><br />
हमें सूरज की किरनें इस लिए तक़लीफ़ देती हैं<br />
अवध की शाम काशी का सवेरा छोड़ आए हैं<br /><br />
गले मिलती हुई नदियाँ गले मिलते हुए मज़हब<br />
इलाहाबाद में कैसा नज़ारा छोड़ आए हैं<br /><br />
हम अपने साथ तस्वीरें तो ले आए हैं शादी की<br />
किसी शायर ने लिक्खा था जो सेहरा छोड़ आए हैं<br /><br />