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10:32, 29 अगस्त 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=रविकांत अनमोल
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<poem>
कहां गाँओं का गोधन खो गया है
हमारा मिस्री माखन खो गया है
दिए जो ख़ाब तुमने ऊँचे-ऊँचे
उन्हीं में नन्हा बचपन खो गया है
महब्बत में समझदारी मिला दी
हमारा बावरापन खो गया है
जहा की दौलतें तो मिल गई हैं
कहीं अख़लाक का धन खो गया है
सुरीली बांसुरी की धुन सुनाकर
कहां वो मेरा मोहन खो गया है
</poem>