<tr><td rowspan=2>[[चित्र:Lotus-48x48.png|middle]]</td>
<td rowspan=2> <font size=4>सप्ताह की कविता</font></td>
<td> '''शीर्षक : पर आँखें नहीं भरींभारत का फ़िलीस्तीन<br> '''रचनाकार:''' [[शिवमंगल सिंह ‘सुमन’अंजली]]</td>
</tr>
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<pre style="overflow:auto;height:21em;background:transparent; border:none; font-size:14px">
कितनी बार तुम्हें देखा यह जगह क्या युद्ध स्थल हैपर आँखें नहीं भरीं। या वध स्थल है
सीमित उर में चिर-असीम सिर पर निशाना साधे सेना के इतने जवानसौंदर्य समा न सका बीन-मुग्ध बेसुध-कुरंग मन रोके नहीं रुका यों तो कई बार पी-पीकर जी भर गया छका एक बूँद थी, किंतु, कि जिसकी तृष्णा नहीं मरी। इस स्थल पर क्यों हैंकितनी बार तुम्हें देखा क्या यह हमारा ही देश हैया दुश्मन देश पर आँखें नहीं भरीं। कब्जा है
शब्द, रूप, रस, गंध तुम्हारी खून से लथपथ बच्चे महिलाएँ युवा बूढ़े कण-कण में बिखरी सब उठाये हुए हैं पत्थरमिलन साँझ इतना गुस्सामौत के खिलाफ़ इतनी बदसलूकीइस क़दर बेफिक्री क्या यह फिलीस्तीन हैया लौट आया है 1942 का मंज़र समय समाज के साथ पकता हैऔर समाज बड़ा होता हैइंसानी जज़्बों के साथउस मृत बच्चे की लाज सुनहरी आँख की चमक देखो धरती की शक्ल बदल रही है वस्तुनिष्ठ प्रश्नोत्तर का समय बीत चुका हैऔर तुम्हारे निपटा देने के तरीके से ऊषा बन निखरी, रहे हैं दलदल हाय, गूँथने बन रही हैं गुप्त कब्रेंऔर श्मशान घाट आग और मिट्टी के ही क्रम इस खेल में कलिका खिली, झरी क्या दफ़्न हो पायेगा एक पूरा देशभर-भर हारी, किंतु रह गई उस देश का पूरा जन रीती ही गगरी। या गुप्त फाइलों में छुपा ली जाएगी कितनी बार तुम्हें देखा जन के देश होने की हक़ीक़तपर आँखें देश के आज़ाद होने की ललकव धरती के लहूलुहान होने की सूरत मैं किसी मक्के के खेतया ताल की मछलियों के बारे में नहीं भरीं।कश्मीर की बात कर रहा हूँजी हाँ, आज़ादी के आइने में देखते हुएइस समय कश्मीर की बात कर रहा हूँ </pre>
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