797 bytes added,
14:37, 1 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=रमेश कौशिक
|संग्रह=चाहते तो... / रमेश कौशिक
}}
<poem>
पहले
झरे पत्ते
फिर गिरी टहनियाँ और शाखें
अंत में
तना भी टूट गया
ठूँठ मात्र रह गया
न गौरैया
न गिलहरी न कपोत
न तोता, न मैना
अब
सिर पर सवार है
एक कठफोडवा
बदन पर लग चुकी है
दीमक फफूंद और
काई
किन्तु इसका नाम इतिहास में
अब भी सदाबहार है
मेरे भाई
</poem>