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10:19, 5 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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<poem>
सच कहूँ इंसानियत दलदल में है
आदमी तो आज भी जंगल में है।
आप सोना ढूढ़ते हैं , किसलिए
आजकल गहरी चमक पीतल में है।
सारी नदियाँ चल पडी सागर की सिम्त
सिरफिरा तालाब किस हलचल में है।
काट डाले बेडियाँ हर शख्स की
ये हिमाकत आज किस पागल में है।
रोशनी देने चला है , देख तो
तेल ही कितना तेरी मिशअल में है।
एक हम उलझे हुए हैं जीस्त में
और उधर उनकी नजर आंचल में है।
सर्दियाँ आईं नहीं सरवत अभी
तूं मगर लिपटा हुआ कम्बल में है।<poem/>