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10:36, 5 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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कभी छिछली, कभी चढ़ती नदी का क्या भरोसा है।
शेयर बाज़ार जैसी जिंदगी का क्या भरोसा है
यहाँ पिछले बरस के बाद फिर दंगा नहीं भड़का
रिआया खौफ में है खामुशी का क्या भरोसा है।
तबाही पर मदद को चाँद भी नीचे उतर आया
मगर इस चार दिन की चांदनी का क्या भरोसा है
वफादारी, नमक क्या चीज़ है, इन्सान क्या जाने
ये कुत्ते जानते हैं, आदमी का क्या भरोसा है
मिनट, घंटे, सेकंड इनका कोई मतलब नहीं होता
समय को भांपना सीखो, घड़ी का क्या भरोसा है
महाभारत में अबके कौरवों ने शर्त यह रख दी
बिना रथ युद्ध होगा, सारथी का क्या भरोसा है<poem/>