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घायल मन का पागल पंछी,
रात भर रोता रहा
दूर से आया थ था चलकर,
ये मुसाफ़िर दर्दे-राह
देख कर पनघट को प्यासे,
मन में जागी एक चाह
उर -पिपासा बुझ ना पाई,
पनघट जल खोता रहा, घायल मन का…………
फूल के बदले पत्थर उसने,
दिल पे मार दिया
आँसुओं से जख्म ज़ख़्म दिल का
रात भर धोता रहा, घायल मन का…………
चल पड़ा फिर राह अपनी,
ले मुसाफिर मुसाफ़िर अपना फूल
चोट अपने फूल ने दी,
हाय कैसी हुई भूल
दिल नहीं माना फिर भी,
फूल ही बोता रहा, घायल मन का…………1988का…………1988
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