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सत्ता का सत / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

वह भी चाहता था
लोग उसकी चर्चा करें;अकाल में
दाने की तरह
सूखे में,बाढ़ में
राहत कोष की तरह
लोग उसकी मिन्नत करें
तो सत्ता में डूबे हुए
राजहंस की तरह

उसकी चर्चा हो तो
जजों और जाँच समितियों के
दोहरे सच की तरह

नौजवानों के दिलों में
वह;लहराती हसीनाओं की तरह
अँधेरे में किसी चिपचिपी धुन की तरह धड़कना चाहता था

वह नहीं चाहता था ईमानदार मुसीबतज़दा का सच होना
वह नहीं चाहता था सच्चे लोगों का सच होना
वह नहीं चाहता था सहज सरल का गरल होना
वह समझ नहीं पा रहा था
विफल होती हड़तालों
और बिखरते आंदोलनों के चलते
सत्ता में अपने को मनवाने की तरकीब क्या है

उसने एकांत में सोचा
नामीबिया,निकरागुआ
फिलिस्तीनी बच्चों या वियतनामी औरतों का सच
होने में कुछ नहीं धरा है

उस ने अंत में सोचा
खेत का सच
पेट का सच
किसान-मजदूर का सच होने के बजाय
उसे सत्ता का सच हो जाना चाहिए
ताकि सत्ता और सच की जुगलबंदी देश के काम आ सके!
<poem>
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