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सूरज / गोबिन्द प्रसाद

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<poem>

हर रोज़ की तरह दिन
आज भी
सूरज की गवाही लेकर
आख़िर अँधेरी गलियों में घुस ही आया

और हम
अपने अपने घर के न्यायधीश
सूरज की गवाही के आदी हो चुके हैं
सच मान लेते हैं और यूँ
कहीं न कहीं अपने ही बिखराव में
साझी हो चुके हैं

हमें उस सूरज की गवाही नहीं चाहिए
जो किसी पेशेवर गवाह की तरह
दिन की परतीति कराने
पीले चेहरों पर
कच्चे घरों के आँगन में
करुणा का बीज बन उगना चाहता है

नहीं चाहिए हमें
उस सूरज की गवाही जो हर बार
नया स्वांग भर
सुबह से शाम तक टोकरे ढोने वाले
जीवन्त चेहरों का मुखौटा लगाकर
ओढ़ी हुई नागरिकता में नहाकर
...वह सूरज अब ठण्डा पड़ चुका है ।
और अब
हमारे ही अन्तर से सुलगना चाह्ता है!

हम उस सूरज को
अपने लाल तवे के ऊपर
पकता हुआ देखना चाहते हैं

सूरज;नहीं है किसी की बपौती
हर बस्ती की उम्मीद है वह
गोया हर हाथ की रोटी!
<poem>
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