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हरिया / गोबिन्द प्रसाद

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हरिया
बलखाती बटियाओं से आ रहा है
-गुनगुनाता हुआ

उस की आवाज़
ग़रीब विधवा सी हो गई है
उस आदमी के ... नहीं नहीं
-ठेकेदार के सामने

हरिया धरती और आसमान के बीच कमान-सा
झुक गया है कुदाल को प्रत्यंचा पर चढ़ा
धरती के सीने में

उस ने अब ज़मीन को कब्र की तरह
-खोद दिया है फावड़े से

और अब.... ...
होठों के बीच लगी बीड़ी के सुलगाव और
दोपहर के झुलसाते सूरज में कोई फ़र्क़ नहीं रह गया है

हरिया
अब लौट रहा है
आँखों में आसमानी गूंगापन लिए
लेटा हुआ हरिया अब आसमान ताक रहा है

भैया! इस समय
हरिया साढ़े पाँच फुटा कफ़ननुमा कोरा काग़ज है
जिस पर कोई भी महा-जन
कुछ भी लिख सकता है

बस्स अब ’हरिया’ हरिया नहीं
फ़क़त काग़ज़ का एक टुकड़ा है

<poem>
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