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लहर2 / जयशंकर प्रसाद

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उठ उठ री लघु लोल लहर!
करुणा की नव अँगराईअंगड़ाई-सी,
मलयानिल की परछाई-सी
इस सूखे तट पर छिटक छहर!
वसुधा चरण-चिह्न-सी बनकर यहीं पड़ी रह जावेगी ।
प्राची रज कुंकुम ले चाहे अपना भाल सजावेगी ।
देख मैं लूँ, इतनी ही तो है इच्छा? लो सिर झुका हुआ।
कोमल किरन-उँगलियो से ढँक दोगे यह दृग खुला हुआ ।
फिर कह दोगे;पहचानो तो मैं हूँ कौन बताओ तो ।
तुम हो कौन और मैं क्या हूँ?
इसमें क्या हैं है धरा, सुनो,
मानस जलधि रहे चिर चुम्बित
मेरे क्षितिज! उदार बनो।
यह लो, करते ही रहते हैं अपना व्यंग्य-मलिन उपहास।
तब भी कहते हो-कह डालूँ दुर्बलता अपनी बीती
तुम सुनकर सुख पाओगे, देखोगे-यह गागर रोती।रीती।
किन्तु कहीं ऐसा न हो कि तुम ही खाली करनेवाले
अपने को समझो, मेरा रस ले अपनी भरनेवाले।
मेरे नाविक! धीरे धीरे।
जिस निर्जन मे में सागर लहरी।
अम्बर के कानों में गहरी
निश्चल प्रेम-कथा कहती हो,
उस दिन जब जीवन के पथ में,
छिन्न पात्र ले कम्पित कर में,
मधु-भिक्षा की रटन अधर मेमें,
इस अनजाने निकट नगर में,
आ पहुँचा था एक अकिंजन।अकिंचन।
लोगों की आखें ललचाईललचाईं,स्वयं माँगने को कुछ आईआईं,मधु सरिता उफनी अकुलाईअकुलाईं,
देने को अपना संचित धन।
अधरों में राग अमन्द पिये,
अलकों में मलजय मलयज बन्द किये
तू अब तक सोई है आली।
आँखों मे भरे विहाग री!
पुलक उठता तब मलय-पवन।
स्निग्ध संकेतों में सुकमारसुकुमार,
बिछल,चल थक जाता जब हार,
छिड़कता अपना गीलापन,
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