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लौट गया सच / गोबिन्द प्रसाद

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सच होंठों के बहुत पास
आकर
दबे पाँव लौट गया

वह होना चाहता था
स्कूल से लौटते हुए बच्चों के बदन में
थकी हुई लय में
घिसटती निर्विकार धुन

वह हम जैसे छूछे
माँ-बाप के सामने
होठों के कोने में
पुतली और पलकों के बीच
किसी अदृश्य नदी की तरह या फिर
उनींदे सपने की तरह
सहम कर ठिठक गया है
सच
अब यहाँ से कभी नहीं जाएगा
वह हमारे परिवार में सीवन का टाँका बन
सुब्हा से मिलती हुई अँधेरी रातों में
झमकता रहता है
माँ की झाईं सा; रात-दिन!
<poem>
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