1,469 bytes added,
10:25, 11 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नईम
|संग्रह=पहला दिन मेरे आषाढ़ का / नईम
}}
{{KKCatNavgeet}}
<poem>
बाजबहादुर-रूपमती की प्रेम कहानी,
लगभग उम्रदराज हो गई।
ऐसी उम्रदराज कि जो ताजा-तरीन है,
तवारीख़ के पृष्ठों में सबसे हसीन है,
भील-भिलालों के जीवन में रची-बसी जो-
घनानंद की है सुजान औ कवि केशव की वो प्रवीन है।
भरे भवन हों या फिर बीहड़
मदमाते यौवन की वो आवाज हो गई।
जाति, धर्म, नस्लों के घेरे घिरी नहीं जो,
दमित वर्जनाओं-सी कोल्हू में पिरी नहीं जो,
छल-छल बहती निपट पहाड़ी धाराओं-सी
क्षमायाचना-सी चरणों में नहीं गिरी जो;
कभी किनारे तोड़ बही ये
कभी नील झीलों-सी गहरी लाज हो गई।
</poem>