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आतप / शैलेन्द्र चौहान
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|रचनाकार=शैलेन्द्र चौहान
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फिर फूले हैं
सेमल, टेसू, अमलतास
हुआ ग़ुलमोहर
सुर्ख़ लाल
ताप बहुत है
अलसाई है दोपहरी
साँझ ढले
मेघ घिरे
धीरे-धीरे खग, मृग
दृग से ओट हुए
दुबके वनवासी
ईंधन की लकड़ी पर
रोक लगी जंगल में
वन-वन भटकें मूलनिवासी
जल बिन
बहुत बुरा है हाल
तेवर ग्रीष्म के हैं आक्रामक
कैसे कट पाएंगे ये दिन
जन-मन,पशु-पक्षी
हुए हैं बेहाल
</poem>
अनिल जनविजय
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