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<poem>
चल पड़े जिधर दो ड़ग, डग मग में चल पड़े कोटि पग उसी ओर; ,
पड़ गई जिधर भी एक दृष्टि
गड़ गये कोटि दृग उसी ओर,
 ::जिसके शिर पर निज धरा हाथ ::उसके शिर -रक्षक कोटि हाथ, ::जिस पर निज मस्तक झुका दिया ::झुक गये उसी पर कोटि माथ;  
हे कोटिचरण, हे कोटिबाहु!
हे कोटिरूप, हे कोटिनाम!
तुम एकमूर्ति, प्रतिमूर्ति कोटि
हे कोटिमूर्ति, तुमको प्रणाम!
 ::युग बढ़ा तुम्हारी हंसी हँसी देख ::युग हटा तुम्हारी भृकुटि देख, ::तुम अचल मेखला बन भू की ::खींचते काल पर अमिट रेख;  
तुम बोल उठे, युग बोल उठा,
तुम मौन बने, युग मौन बना,
कुछ कर्म तुम्हारे संचित कर
युगकर्म जगा, युगकर्म युगधर्म तना;  ::युग-परिवर्तक, युग-संस्थापक, ::युग-संचालक, हे युगाधार! ::युग-निर्माता, युग-मूर्ति! तुम्हें ::युग-युग तक युग का नमस्कार!  तुम युग-युग की रूढियां तोङ रूढ़ियाँ तोड़
रचते रहते नित नई सृष्टि,
उठती नवजीवन की नींवे नींवें ले नवचेतन की दिव्य- दृष्टि;  ::धर्माडंबर के खंडहर खँडहर पर ::कर पद-प्रहार, कर धराध्वस्त ::मानवता का पावन मंदिर, ::निर्माण कर रहे सृजनव्यस्त!  
बढ़ते ही जाते दिग्विजयी!
गढ़ते तुम अपना रामराज,
आत्माहुति के मणिमाणिक से
मढ़ते जननी का स्वर्णताज!
 ::तुम कालचक्र के रक्त सने ::दशनों को करके पकड़ सुदृढ़, ::मानव को दानव के मुंह से ::ला रहे खींच बाहर बढ़ बढ़;
पिसती कराहती जगती के
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