1,615 bytes added,
12:28, 19 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna}}
रचनाकार=सर्वत एम जमाल
संग्रह=
}}
{{KKCatGazal}}
<poem>
जो मेरे हाथ में माचिस की तीलियाँ होतीं
फिर अपने शहर में क्या इतनी झाड़ियाँ होतीं
पचास साल इसी ख्वाब में गुजार दिये
बहार होती, चमन होता, तितलियाँ होतीं
गरीब जीते हैं कैसे अगर पता होता
तुम्हारे चेहरे पे कुछ और झुर्रियां होतीं
वो कह रहा है कि दरवाजे बंद ही रखना
मैं सोचता हूँ कि इस घर में खिड़कियाँ होतीं
अगर सलीके से तकसीम पर अमल होता
तो ये समझ लो कि हर हाथ रोटियाँ होतीं
ये सिले आब अगर अपना कद घटा लेता
तो पौधे कद को बढ़ा लेते बालियाँ होतीं
बस एक भूख पे सर्वत बिखर गए वरना
जमीं पे रोज बहार आती, मस्तियाँ होतीं</poem>
____________________________________