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बसंती हवा / केदारनाथ अग्रवाल

249 bytes removed, 06:33, 20 सितम्बर 2010
|संग्रह=फूल नहीं, रंग बोलते हैं-1 / केदारनाथ अग्रवाल
}}
<poem>
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!
वही हाँ, वही जो युगों से गगन को
बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही जो धरा का बसन्ती
सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ;
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
वही हाँ, वही, जो सभी प्राणियों को
पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ,
हवा हूँ, हवा मैं बसंती हवा हूँ।
कसम रूप की है, कसम प्रेम की है,
कसम इस हृदय की, सुनो बात मेरी
अनोखी हवा हूँ, बड़ी बावली हूँ!
बड़ी मस्तमौला, नहीं कुछ फिकर है,
बड़ी ही निडर हूँ, जिधर चाहती हूँ,
उधर घूमती हूँ, मुसाफ़िर अजब हूँ!
न घर-बार मेरा, न उद्देश्य मेरा,
न इच्छा किसी की, न आशा किसी की,
न प्रेमी न दुश्मन,
जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ!
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ।
हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ !<br> वही हाँ, वही जो युगों जहाँ से गगन को<br>बिना कष्ट-श्रम के सम्हाले हुए हूँ;<br>हवा हूँ, हवा, चली मैं बसंती हवा हूँ ।<br><br>वही हाँ, वही जो धरा का बसन्ती<br>सुसंगीत मीठा गुँजाती फिरी हूँ;<br>हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ ।<br>वही हाँ, वही, जो सभी प्राणियों जहाँ को<br>पिला प्रेम-आसव जिलाए हुए हूँ,<br>हवा हूँ, हवा गई मैं बसंती हवा हूँ ।<br><br>कसम रूप की हैशहर, कसम प्रेम की हैगाँव,<br>कसम इस हृदय कीबस्ती, सुनो बात मेरी--<br>अनोखी हवा हूँनदी, बड़ी बावली हूँ !<br>बड़ी मस्तमौलारेत, नहीं कुछ फिकर हैनिर्जन,<br>बड़ी ही निडर हूँहरे खेत, जिधर चाहती हूँपोखर,<br>उधर घूमती हूँझुलाती चली मैं, मुसाफ़िर अजब हूँ !<br><br>न घर-बार मेरा,न उद्देश्य मेराझुमाती चली मैं,<br>न इच्छा किसी की,न आशा किसी की,<br>न प्रेमी न दुश्मन,<br>जिधर चाहती हूँ उधर घूमती हूँ !<br>हवा हूँ, हवा, मैं मै बसंती हवा हूँ ।<br><br><br>हूँ।
जहाँ चढ़ी पेड़ महुआ, थपाथप मचाया,गिरी धम्म से चली मैंफिर, जहाँ को गई चढ़ी आम ऊपरउसे भी झकोरा,किया कान में 'कू',उतर कर भगी मैं -<br>हरे खेत पहुँचीशहरवहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी, गाँवपहर दो पहर क्या, बस्तीअनेकों पहर तकइसी में रही मैं।खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,<br>नदीमुझे खूब सूझी!हिलाया-झुलाया, रेतगिरी पर न कलसी!इसी हार को पा, निर्जनहिलाई न सरसों, हरे खेतझुलाई न सरसों, पोखरमज़ा आ गया तब,<br>झुलाती चली मैंन सुध-बुध रही कुछ, झुमाती चली मैं,<br>बसन्ती नवेली भरे गात में थी!हवा हूँ, हवा, मै मैं बसंती हवा हूँ ।<br><br><br>!
चढ़ी पेड़ महुआ,थपाथप मचाया,<br>गिरी धम्म से फिर,चढ़ी आम ऊपर<br>उसे भी झकोरा,किया कान में 'कू',<br>उतर कर भगी मैं हरे खेत पहुँची--<br>वहाँ गेहुँओं में लहर खूब मारी,<br>पहर दो पहर क्या,अनेकों पहर तक<br>इसी में रही मैं ।<br>खड़ी देख अलसी लिए शीश कलसी,<br>मुझे खूब सूझी !<br>हिलाया-झुलाया,गिरी पर न कलसी!<br>इसी हार को पा,<br>हिलाई न सरसों, झुलाई न सरसों,<br>मज़ा आ गया तब,<br>न सुध-बुध रही कुछ,<br>बसन्ती नवेली भरे गात में थी !<br>हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ!<br><br><br> मुझे देखते ही अरहरी लजाई,<br>मनाया-बनाया,न मानी, न मानी,<br>उसे भी न छोड़ा--<br>पथिक आ रहा था,उसी पर ढकेला,<br>हँसी ज़ोर से मैं,हँसी सब दिशाएँ<br>हँसे लहलहाते हरे खेत सारे,<br>हँसी चमचमाती भरी धूप प्यारी,<br>बसंती हवा में हँसी सृष्टि सारी!<br>हवा हूँ, हवा, मैं बसंती हवा हूँ ।।<br>हूँ।<br/poem>