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06:47, 21 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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<poem>
मर्यादा है या मजबूरी कुछ बोलो
यह शोषण है या दस्तूरी कुछ बोलो
सारे नंगे कपडे बुनने बैठे है.....
चौराहों पर भीड़, बताशे आ पहुंचे
सुविधाभोगी खेल तमाशे आ पहुंचे
क्या रखा है दुनिया की भाषाओँ में
सारा कुछ संकेतों की सीमाओं में
गूंगे सब ही के गुण गुनने बैठे हैं
सारे नंगे..................
घर आँगन सीवान लगे काला पानी
गर्दन गर्दन तक है मटियाला पानी
घाव बदन पर हो तो कोई दिखलाए
लेकिन अपनी पीड़ा कैसे बतलाए
बहरे ही जब दुखड़ा सुनाने बैठे हैं
सारे नंगे.................
आदर्शों की बेडी काटी तो टूटी
बेहद खुश हैं सब परिपाटी तो टूटी
नव चिंतन सरकार बड़ा ही न्यायिक है
फल मंडी का शायद अल्ला मालिक है
नेत्रहीन ताजे फल चुनने बैठे हैं
सारे नंगे................</poem>