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15:34, 27 सितम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=ओम पुरोहित ‘कागद’
|संग्रह=आदमी नहीं है / ओम पुरोहित ‘कागद’
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<Poem>
आजकल शहर में
हर चेहरा
मासूमियत और चुप्पी लिए घूमता है
...लेकिन लगता है
इस चुप्पी में
भयंकर कोलाहल कैद है
हर हलक के नीचे
अंगारे सुलग रहे हैं
जैसे पॉलीथिन की थैली में
गर्म घी कैद हो।
ऎसी कैद
अधिक दिन तक
या स्थाई नहीं रह सकती
गर्म घी
पॉलीथिन को पिघला कर
एक दिन बाहर आएगा
तब देखना
कौन कहां ठहर पाएगा
जो आएगा रास्ते में
बस, घी में जम जाएगा
घी तो घी है
कभी पिघल जाएगा
कभी जम जाएगा।
लेकिन
यह बात निश्चित कर लें
कि, आज की चुप्पी
कल का शोर बनेगी
आज की मासूमियत
कल खूंखार रूप धरेगी
और
अपनी चुप्पी के दिनों के तलपट को
तुम्हारे सीने पर मिलाएगी।
तुम्हारा सीना चीर कर
तुम्हारे भीतर बैठे
दरिंदे दिल से
एक-एक शोषित दिन का
हिसाब मांगेगी।
उस दिन
तुम्हारी पशुता
तुम्हारी अमानवीयता
तुम्हारी तथाकथित बहादुरी
इसी चुप्पी के तलवे चाटेगी।
यह भी निश्चित कर लें
कि उस दिन
करोड़ों लोग
तुम्हारी सार्वजनिक हत्या को
अपनी दो-दो आंखों से देखेंगे
मगर फिर भी
तुम्हारी हत्या का मुकदमा
चश्मदीद गवाही को
तरस कर रह जाएगा।
</poem>