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प्रस्तावना/ मनोज श्रीवास्तव

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अधिकाँश पत्रिकाओं के संपादकों को स्टार इतना गिरा होता है कि उन्हें कायांगों के बारे में कोई ज्ञान ही नहीं होता. उन्हें यह भी पता नहीं होता कि कविता रचनाकार की सघन साधना की उपज होती है. अनुभूति की तपोभूमि पर सांसारिक पीड़ा की धूप से तपकर सतत तपस्या का वरदान होती है. वे स्वयं द्वारा संपादित पत्रिकाओं में अपने मित्रों और यहाँ तक कि अपने बच्चों आदि की उल-जुलूल कविताओं को प्रकाशित करके खुद को किसी बड़ी ज़िम्मेदारी से निवृत्त मानते हैं. वे अपने किसी ऐसे इष्ट पाठक की रचना को प्रकाशित करना अपना पुनीत कर्तव्य मानते हैं जिसने उनकी पत्रिका के नाम पर भारी-भरकम डोनेशन दिया है. पाठकों द्वारा इस बाबत कोई शिकायत दर्ज किए जाने पर वे बड़ा सहज तर्क पेश करते हैं कि यह मेरे रोजी-रोटी का सवाल है. अरे, मैं कहता हूँ कि आजीविका के लिए साहित्य की तिजारत करना उनकी कौन-सी मज़बूरी है. वे गाज़ियाबाद के घंटाघर के पास, बनारस के गोदौलिया चौराहे पर, दिल्ली के कनाट प्लेस में या मुम्बई के चौपाटी कोन पर कोई चाय-पान या चाट-मसाले की दुकान क्यों नहीं खोल लेते हैं? इस आजीविका स्रोत में उन्हें इतना मुनाफा होगा कि वे मजे से अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकेंगे और रोकड़ भी जमा कर सकेंगे. उदाहरण के लिए, गाज़ियाबाद के घंटाघर पर एक समोसा-विक्रेता के राज नगर में करोड़ों की कोठी है जिसे उसने समोसे काव्यापार शुरू करने के बाद बनवाया था. मैं समझता हूँ कि साहित्यिक पत्रिकाओं के पेशेवर सम्पादक वहां खुद जाकर मेरी बात की यथातथ्यता से अवगत होंगे और किसी बैंक से आसान किस्तों पर लोन लेकर कोई ऐसा धंधा अवश्य शुरू कर देंगे.
मेरी बातों को काव्य साधक अन्यथा न लें। वे सबक लेकर या तो कविता के लिए नि:स्वार्थ भाव से साधना करें या इस लफ़डे से पिण्ड छुडाकर एक स्वस्थ सामाजिक जीवन की शुरुआत करें। यह कविता पर उनका बडा परिपकार होगा; हां, मुजः जैसों पर भी, जो कविता के भविष्य को लेकर बडे चिन्तित हैं।
यह बात निर्विवाद है कि कविता का भविष्य अन्धकारमय है। कविता दुर्बोदः अभिव्यक्तियों की अन्धी गलियों में भटक रही है। इस भटकाव में वह सहजता, सुबोधता और सुगम्यता से बहुत दूर जा चुकी है। वह अन्तर्मुखी होने के कारण संवेदनशील नहीं रही। प्रासंगिक नहीं रही। हमारे और आपके साथ नहीं रही। वह एक-दो प्रतिशत समाज के साथ है जो (समाज) सिर्फ़ कवि का है।