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{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
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वह जो बार बार पास आता है
क्या उसे पता है वह क्या चाहता है

वह जाता है
लौटकर नाराज़गी के मुहावरों
के किले गढ़
भेजता है शब्दों की पतंगें

मैं जो समझता हूँ मैं क्या चाहता हूँ
क्या सचमुच मुझे पता है मैं क्या चाहता हूँ

जैसे चाँद पर मुझे कविता लिखनी है
वैसे ही लिखनी है उस पर भी
मज़दूरों के साथ बिताई एक शाम की
चाँदनी में लौटते हुए
एक चाँद उसके लिए देखता हूँ

चाँदनी हम दोनों को छूती
पार करती असंख्य वन-पर्वत
बीहड़ों से बीहड़ इन्सानी दरारों
को पार करती चाँदनी

उस पर कविता लिखते हुए
लिखता हूँ ताण्डव गीत
तोड़ दो, तोड़ दो, सभी सीमाओं को तोड़ दो.
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