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सात कविताएँ-7 / लाल्टू

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|संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू
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मुड़-मुड़ उसके लिए दढ़ियल बरगद बनने की प्रतिज्ञा करता हूँ ।
सन् 2000 में वह, मेरी दाढ़ी खींचने पर धू-धू लपटें उसे घेर लेंगीं ।
मेरी नियति पहाड़ बनने के अलावा और कुछ नहीं ।
उसकी खुली आँखों को सिरहाने तले सँजोता हूँ ।
उड़नखटोले पर बैठते वक़्त वह मेरे पास होगा ।
युद्ध सरदारो, सुनो! मैं कौन हूँ? तुम कौन हो?उसे बूँद-बूँद अपने सीने में सींचूँगा । मैं एक पिता देखता हूँ पितृहीन प्राण.उसे बादल बन ढँक लूँगा । उसकी आँखों में आँसू बन छल-छल छलकूँगा ।ग्रहों को पार कर मैं आया हूँएक भरपूर जीवन जीता बयालीस उसके होंठों में विस्मय की बालिग उमरध्वनि तरंग बन बजूँगा । देख रहा हूँ एक बच्चे तुम्हारी लपटों को मेरा सीना चाहिए उसकी निश्छलता की लहरों में मैं काँपता हूँमेरे एकाकी क्षणों में उसका प्रवेश सृष्टि का आरम्भ हैमेरी दुनिया बनाते हुए वह मुस्कराता हैसुनता हूँ बसन्त के पूर्वाभास में पत्तियों लगातार प्यार की खड़खड़ाहटबारिश बन बुझाऊँगा ।दूर दूर से आवाज़ें आती हैं उसके होने के उल्लास मेंआश्चर्य मानव सन्तानअपनी सम्पूर्णता के अहसास से बलात् दूरउँगलियाँ उठाता है, माँगता है भोजन के लिए कुछ पैसे.</poem>
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