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06:04, 11 अक्टूबर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=लाल्टू
|संग्रह=लोग ही चुनेंगे रंग / लाल्टू
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<poem>
वहाँ स्टेज पर बड़ी बड़ी तारें थीं.
चीन या मंगोलिया से लाए गए थे कागज़ के फूल.
वहीं माइक पर खड़ा था मैं. मेरे सामने एक देश. देश तुरुप के पत्ते सा.
देश में दौड़ रहे थे चूहे.
चूहे, तिलचट्टे, मच्छर, इन्सान.
अफवाह थी फैल चुका है प्लेग.
स्टेज पर पढ़ना चाहता था मैं अज्ञेय, मुक्तिबोध, एलियट.
मेरी आँखों में थी कविता. जैसे ही पढ़ता, अफवाह का शोर ज़ोर से उठता.
जाने कैसी हवा थी. हवा में प्लेग.
कविता में नहीं था रूप तब. न ही विचारधारा.
कविता में थे अखबार. कविता में अन्धकार.
उस वक्त भीड़ से उठा वह आदमी.
आदमी के हाथों में थी कविता. आदमी उठा ज़ोरों से चिल्लाया.
बोला गलत गलत गलत.
देखो स्टेज देखो. देखो फारसी संस्कृत, भूगोल, इतिहास पढ़ा कवि देखो,
गलत कहा मैंने. वह नहीं महाकवि.
आदमी बोला कविता है प्लेग प्लेग प्लेग.