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17:26, 16 अक्टूबर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=सर्वत एम जमाल
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<poem>
तपिश और धूप में हम पल रहे हैं
हमारे सर पे कब बादल रहे हैं
सफर में अब वही हैं सबसे पीछे
जो बैसाखी के बल पर चल रहे हैं
हमें तो जहनियत ही से घुटन थी
तुम्हें तो आदमी भी खल रहे हैं
किसी का सुख गंवारा है किसी को
जलन की आग में सब जल रहे हैं
खुदा जाने ये कैसी रोशनी है
कि सारे लोग आँखें मल रहे हैं
उन्हें ही उल्टी तस्वीरे दिखाओ
जो सारी उम्र सर के बल रहे हैं
नये अफकार सर्वत गैर मुमकिन
यहाँ तो जहन सदियों शल रहे हैं </poem>