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18:12, 16 अक्टूबर 2010 {{KKGlobal}}
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रचनाकार=संजय मिश्रा शौक
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<poem>
शहर आदिल है तो मुंसिफ की जरूरत कैसी
कोई मुजरिम ही नहीं है तो अदालत कैसी
काम के बोझ से रहते हैं परीशां हर वक्त
आज के दौर के बच्चों में शरारत कैसी
हमको हिर-फिर के तो रहना है इसी धरती पर
हम अगर शहर बदलते हैं तो हिजरत कैसी
मैंने भी जिसके लिए खुद को गंवाया बरसों
वो मुझे ढूँढने आ जाए तो हैरत कैसी
जिसमें मजदूर को दो वक़्त की रोटी न मिले
वो हुकूमत भी अगर है तो हुकूमत कैसी</poem>
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