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ज़माने वालो / उदयप्रताप सिंह

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नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है ।

तुम्हारी घड़ियाँ गलत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो ।


मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों

मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो ।


तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो

इधर मैं रखता हूँ इस कलम को समझते क्या हो खजाने वालो ।


न जाने कितने समुद्र मंथन का विष पिया है खुशी से हमने

हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो ।


जहाँ में इन आंसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी

कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो ।


नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी

हमारी आँखों में जिंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो ।
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