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16:39, 17 अक्टूबर 2010 नज़र जहाँ तक भी जा सकी है सिवा अँधेरे के कुछ नहीं है ।
तुम्हारी घड़ियाँ गलत हैं शायद, बजर सुबह का बजाने वालो ।
मैं उस जगह की तलाश में हूँ जहाँ न पंडित ना मौलवी हों
मुझे गरज क्या हो दैरो-ओ काबा या मयकदा पथ बताने वालो ।
तुम अपना सारा गुरुरे दौलत तराजू के उस सिरे पे रख लो
इधर मैं रखता हूँ इस कलम को समझते क्या हो खजाने वालो ।
न जाने कितने समुद्र मंथन का विष पिया है खुशी से हमने
हमारी बोली में जो असर है यूँ ही नहीं है ज़माने वालो ।
जहाँ में इन आंसुओं की कीमत बहुत हुई तो दो बूँद पानी
कला की दुनिया की ये सजावट हैं गीले मोती लुटाने वालो ।
नहीं हैं हम कोई मुर्दा दर्पण जो देखकर भी न देखे कुछ भी
हमारी आँखों में जिंदगी है संभल के जलवा दिखाने वालो ।