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|संग्रह=दुख जोड़ेंगे हमें / ब्रजमोहन
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दुख के कितने पर्वत चढ़ने होंगे अभी और रे
 रात के अंधेरों अँधेरों में छिपी है कहाँ भोर रे... 
चलते-चलते राह मिली न चाह मिली न छाँव
 
उम्मीदें पत्तों-सी टूटीं, पीछे छूटे पाँव
 
टूटी न फिर भी कैसे जीवन की डोर रे...
 
सूरज जलता धरती जलती जलता है आकाश
 
तेरा-मेरा जीवन पीकर बुझती किसकी प्यास
 
हँसते हैं किस पे काली दुनिया के चोर रे...
 
कितने सागर कितनी नदियाँ कितने तूफ़ाँ बाक़ी
 
कितने सपने कितनी चाहें कितने अरमाँ बाक़ी
 
नाचेंगे किस बारिश में मन के सब मोर रे...
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