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|रचनाकार=मनोज भावुक
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[[Category:ग़ज़ल]]
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रेशम के कीड़ा के तरे खुदहीं बनावत जाल बा
ई आदमी अपने बदे काहें रचत जंजाल बा
पानी के बाहर मौत बा, पानी के भीतर जाल बा
लाचार मछरी का करो जब हर कदम पर काल बा़
झूठो के काहे आँख में केहू भरेला लालसा
काल्हो रहे बदहाल ऊ, आजो रहत बदहाल बा
कइसे रही, कहँवाँ रही, ई मन भला सुख-चैन से
बदले ना हालत तब दुखी, बदले तबो बेहाल बा
अइँठात बा मन्दिर के बाहर भीखमंगा भूख से
मंदिर के भीतर झाँक लीं, पंडा त मालेमाल बा
केहू के नइखे पूत तऽ, केहू के नइखे नोकरी
'भावुक' धरा पर आदमी हरदम रहल कंगाल बा
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