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बाढ़ / मणि मधुकर

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=मणि मधुकर|संग्रह=}}{{KKCatKavita‎}}<poemPoem>बड़की बा से सुनी थी मैंने वह कहानी
जिसमें
एक सूना बनखंड वनखंड था और डरावना डूंगर
गुफा के तिखंडे तल्‍ले
पर सोता था दगरू-दाना
उसके खूंटेनुमा खूँटेनुमा दांतों और गन्‍दे होठों की दरारों से फूटता था
मौत का दरिया
बहता है
क्‍या वह बूंदबूँद-बूंद बूँद के लिए मुहताज ढाणियों की सदा-रमजान
प्‍यास बूझा सकता है
मुझे नहीं पता क्‍यों पर बालपने के उस अबूझ
खड़ा हूं
एक घर : घोंसले की भांति भाँति औंधा तैरता हुआ
एक बैल : चाम के बोरे की तरह
फूल कर
पेड़ की जड़ों से फंसा फँसा हुआ
एक लहंगा : मोमाक्‍खी के छत्‍ते-सा फैला हुआ
आकाश के बेलगाम बादलों की दौड़ हिनहिनाहट और
अपने गीले कपड़ों में, तर-तर टपकते हुए अंगों में
कोई विकल्‍प ढूंढ़ना ढूँढ़ना आत्‍महत्‍या है
लेकिन मैं अन्‍धापन स्‍वीकारने से पहले धरती की उस धुरी
को चीन्‍ह लेना चाहता हूं हूँ जो मेरे देखते-देखते जम्‍हूरियत के
जाली जश्‍न में डूब गयी है !
('घास का घराना' से)
</poem>
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