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नील / नवारुण भट्टाचार्य

No change in size, 05:33, 17 नवम्बर 2010
रक्त और स्मृति के बीच
मैं ज़रूर ढूँढ लूँगा कोई मेल
मैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील।नील ।
छुई जा सकती है बारूद की तरह मेरे देश की रात
प्रचण्ड लहरों ने सीने में जकड़ा था वह शव
बर्छी की नोक जैसी तीखी हवा में
तुम्हें फिर से छू लूँगा, नील। नील ।
नील , मैं छुए हूँ मस्तकविहीन स्वदेश का कबंध
छुए हूँ धान, मृत्यु, जन्म,क्रोध,खेत
नील,तेरे स्पर्श से हुआ हूँ मैं नीला रक्तमुख।रक्तमुख ।
सियार के दाँतों-नाख़ूनों ने चींथ दिया था उसे
कलेजे में खिलते हैं प्रतिहिंसा के फूल
रक्त और स्मृति के बीच ज़रूर ढूँढ लूँगा कोई मेल
मैं हूँ तेरा सहज शुभाकांक्षी, नील।नील ।
</poem>
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