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07:26, 17 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=नवारुण भट्टाचार्य
|संग्रह=यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश / नवारुण भट्टाचार्य
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<poem>
बारूद लपेटे हुए हैं उनके घरों की दीवारें
हल्के काठ की चरमराती नीची छत
यहाँ रहते हैं अनेक मनुष्य रक्तहीन,बुझे हुए
अर्थहीन और नितांत बरबाद।
उनके शरीर में रक्त है कि नहीं
यह सोचने का एक विषय है
वे बदकार हैं घोर काली रात
जकड़े हुए है उनके सर।
क्या जाने किस हताशाजनित क्रोध में
वे निकल आते हैं घर से बाहर हड़बड़ाए हुए
हल्के काठ की नीची चरमराते छत से
सर छू जाने पर फिस-फिस हँस देते हैं।
बारूद लपेटे हैं उनके घरों की दीवारें
उन दीवारों से सर ठोंक कर पता नहीं क्या चाहते हैं वे
अर्थहीन और नितांत बरबाद
बुझी हुई ज्वाला में ख़ुद ही जल जाते हुए।
</poem>