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अपने हाथ अपना खून चाहती / रामप्रकाश 'बेखुद' लखनवी
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02:18, 21 नवम्बर 2010
प्यास मे कितना खून चाहती है
इश्क़ अहले
ख़ि
रद
ख़िरद
का काम नहीं
आशिक़ी तो जुनून चाहती है
ख़्वाब
शायद वो बुन रही है कोई
इक सुहागन जो ऊन चाहती है
और भी कुछ फ़ुनून चहती है
छत हमारे गुमान की
’बेख़ुद
’
’बेख़ुद’
अब यक़ीं का सुतून चाहती है</poem>
द्विजेन्द्र द्विज
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