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इश्तहार / नवारुण भट्टाचार्य

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|रचनाकार=नवारुण भट्टाचार्य
|संग्रह=यह मृत्यु उपत्यका नहीं है मेरा देश / नवारुण भट्टाचार्य
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<poem>
१.
सयाही भरने के बाद
कलम के भीतर
नीला गहरा अंधकार।
दवात में स्याही कम हो गई है
क़ाग़ज़ पर अक्षर आ बैठे हैं
मेरे भीतर क्यों कि लाल स्याही है
तभी मेरी लिखावट है लाल।

२.

मर्करी के उजाले में नीली गंजी पहने हुए दादा
चर्च लेन में लाटरी के टिकट बेचने वाली लड़की
पाकेट में एक बीड़ी लेकर बेहद ख़ुश गोदी मज़दूर
ये सब कलकत्ता के नाविक हैं
कलकता एक युद्धपोत।

३.
छोटी वेश्या बोलीमैं मनुष्य की पीठ पर नहीं चढ़ती
इसकी उम्र ही क्या है?
यह सुनकर
रिक्शावाला गुस्सा हुआ
उसकी घंटी शराबियों को बुलाता है
छोटी वेश्या के गाल पर
झुककर चुंबन दे गया
रोंयेंदार पाउडर के पफ़ जैसा चाँद।

४.
टेलिग्राम! ख़बर!
ज़बर्दस्त ख़बर है
सितारों की केन्द्रीय समीति से
पार्टी -विरोधी कार्यकलापों के लिए
अभी-अभी एक तारा...
५.
सत्याग्राही रेल कालोनी में
आधी रात पुलिस के हमले के बाद
सवेरे-सवेरे खेल रहा है नंगा बच्चा
उसके सिर पर पट्टी बँधी है क्यों।
६.
देखो, आकाश के उठे हुए हाथ में सूरज का हथगोला
शाम ढलने पर ख़ून और धुँए के बीच से
पश्चिम में मुक्ति योद्धा
अँधेरे पहाड़ पर चले रहे हैं
यह देखो,
सुबह का पूरब
जल रहा है झंडे के लाल रंग से
क्रांति की मृत्यु नहीं होती, जीभ काटने पर
या फांसी पर लटका देने से भी
</poem>