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09:00, 21 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
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|रचनाकार=राजीव भरोल
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<poem>
यहाँ मुस्कुराना बहुत लाज़िमी है
हक़ीक़त छुपाना बहुत लाज़िमी है
अगर ख़्वाब संजीदा होने लगें तो
उन्हें गुदगुदाना बहुत लाज़िमी है
जो रिश्तों की बगिया को है सींचना तो
मुहब्बत जताना बहुत लाज़िमी है
भले इश्क़ है एक भारी-सा पत्थर
ये पत्थर उठाना बहुत लाज़िमी है
सियासत के चेहरे से इंसानियत के
मुखौटे हटाना बहुत लाज़िमी है
नए दौर की इस नई दास्ताँ में,
पुराना ज़माना बहुत लाज़िमी है.
चलो फूँक डालें सभी नफरतों कों,
ये कचरा जलाना बहुत लाज़िमी है.
जो मालूम है ये है ओलों का मौसम,
तो क्या सर मुँडाना बहुत लाज़िमी है?