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बुलावा / रमानाथ अवस्थी

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{{KKGlobal}}{{KKRachna|रचनाकार=रमानाथ अवस्थी}}{{KKCatGeet}}<poem>'''बुलावा'''  
प्यार से मुझको बुलाओगे जहाँ
एक क्या सौ बार आऊँगा वहाँ
पूछने की है नहीं फुर्सत फ़ुर्सत मुझे
कौन हो तुम क्या तुम्हारा नाम है
किस लिए मुझको बुलाते हो कहाँ
फूल से तुम मुस्कुराओगे जहाँ
मैं भ्रमर सा गुनगुनाऊंगा गुनगुनाऊँगा वहां
कौन मुझको क्या समझता है यहाँ
आदमी को तुम झुकाओगे जहाँ
प्राण की बाजी लगाऊंगा वहांलगाऊँगा वहाँ
जानता हूँ एक दिन मैं फूल -सा
टूट जाऊँगा बिखरने के लिए
फिर न आऊँगा तुम्हारे रूप की
किन्तु तुम मुझको भूलाओगे जहाँ
याद अपनी मैं दिलाऊंगा दिलाऊँगा वहाँ
मैं नहीं कहता कि तुम मुझको मिलो
सर उठाकर तुम झुकाओगे जहाँ
बूँद बन-बन टूट जाऊँगा वहांवहाँ</poem>
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