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अब मेरा दिल कोई मजहब न मसीहा मांगे / अज़ीज़ आज़ाद
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02:46, 22 नवम्बर 2010
ये तआलुक है कि सौदा है या क्या है आख़र
लोग हर जश्न पे
पेहमान
मे
हमान
से पैसा माँगे
कितना लाज़म है मुहब्बत में सलीका ऐ‘अज़ीज़’
ये ग़ज़ल जैसा कोई नर्म-सा लहज़ा माँगे
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द्विजेन्द्र द्विज
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