1,237 bytes added,
03:08, 26 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
कैसे बोलूँ मैं किसी के सामने
शब्द गूँगे हैं ख़ुशी के सामने
तर्क का सिक्का नहीं चल पाएगा
प्यार की जादूगरी के सामने
जो भी आया वो ही जल-याचक मिला
सिर्फ़ प्यासे हैं नदी के सामने
हँस पड़े थी जिस जगह रोने की बात
लोग रोए हैं हँसी के सामने
आ गया है पेट भरने का सवाल
पद्म-भूषण -पद्म-श्री के सामने
टिक नहीं पाया तिमिर सौ साल का
एक पल की रोशनी के सामने
आज भी नत है मशीनो का समाज
हाथ की कारीगरी के सामने
<poem>