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{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
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<poem>

कैसे बोलूँ मैं किसी के सामने
शब्द गूँगे हैं ख़ुशी के सामने


तर्क का सिक्का नहीं चल पाएगा
प्यार की जादूगरी के सामने

जो भी आया वो ही जल-याचक मिला
सिर्फ़ प्यासे हैं नदी के सामने

हँस पड़े थी जिस जगह रोने की बात
लोग रोए हैं हँसी के सामने

आ गया है पेट भरने का सवाल
पद्म-भूषण -पद्म-श्री के सामने

टिक नहीं पाया तिमिर सौ साल का
एक पल की रोशनी के सामने

आज भी नत है मशीनो का समाज
हाथ की कारीगरी के सामने
<poem>