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02:39, 27 नवम्बर 2010 {{KKGlobal}}
{{KKRachna
|रचनाकार=जहीर कुरैशी
|संग्रह=समंदर ब्याहने आया नहीं है / जहीर कुरैशी
}}
{{KKCatGhazal}}
<poem>
सिर्फ़ चलना ही नहीं काफ़ी ओ चलने वाले
लक्ष्य तक पहुँचे नहीं लक्ष्य बदलने वाले
इस व्यवस्था को बदलने की न पूछो भाई
हमने देखे है कई आग उगलने वाले
हम समझते हैं चुनावों के समय की कीमत
हम नहीं बच्चों की शैली में बहलने वाले
वे अगर ठान ही लें गे तो निकल जाएँगे
वे नहीं बैठ के बस हाथों को मलने वाले
उनके तलवों में ही उग आई है कार्र यारो
हर क़दम पर ही फिसलते हैं फिसलने वाले
अपनी पहचान बनाएँगे स्व्यं के बल पर
हम नहीं उनकी तरह साँचों में ढलने वाले
बर्फ़-से लोग बने ज़्यादा से ज़्यादा पानी
राख बन जाते हैं अंगारों-से जलने वाले
</poem>