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कविता / ओम पुरोहित ‘कागद’

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कुण है जिकै मांय इण जुद्ध नै
जीतणै रो दम हुवै ।
 
'''इस कविता का हिंदी अनुवाद'''
 
कविता
ना तो लिखी जाती है और
ना ही पढ़ी जाती है ।
 
कविता तो इधर-उधर
बिखरी हुई कठिनाइयों के अंगारो को
अपने अंतस में बीन कर
बुझाने की क्रिया है
और इस में आग लगने की संभावना अधिक है
बचने की बजाय ।
 
इसी क्रिया की पुनरावर्ती
अपने भीतर ही भीतर
महसूस करने की कला होती है
कविता को पढ़ना ।
 
इस दौर में
कविता पढ़ना और लिखना
किसी युद्ध से शायद ही कमतर हो
कौन है
जिसके भीतर
इस युद्ध को जीतने का दम है ।
 
अनुवाद : नीरज दइया
 
</poem>
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