असंभव / कस्तूरी झा 'कोकिल'

घटा दीवानी छै,
बादल दीवान छैं।
सावन महीना मेॅ,
मौसम दीवाना छै।
ऐहना में तोरा बिना
कोकिल पछताबै छै।
केनाँ केॅ मिलभौ तोॅ
समझे नैं आबै छै।
विरहानल जागै छै,
बरसाँ धधकाबै छैॅ
उलटे छै काम एकरॅ
सुतलेॅ जगाबै छै।
पंचतत्व मिलला बाद
धुरना असंभव छै।
कत्तों कानोॅ माथा धूनोॅ
तैइयों नैं संभव छै।
यही लेल लिखी-लिखी
याद हम्मेॅ करै छीहौं
आगि न सेॅ पानी सेॅ
पता तोरोॅ पूछै छीहौं
गगन, पवन धरती सें
पता तोंरोॅ पूछै छीहौॅ।
कोय कुछनैॅ बोलै छै।
तैइयों नेॅ बुझै छीहौ।

21/08/15 पूर्वाहन 10.45

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