एक दिन / प्रतिभा सिंह

एक दिन
उसे देखकर
गदराए यौवन से सुवासित प्रेम उपजा
और फिर ठिठक गई मैं
कि जीवित रहने के लिए सांसों के साथ
हृदय का समन्वयन जरूरी है
किन्तु नहीं रोक पायी उसे चाहकर भी
क्योंकि स्त्री को प्रेम चरित्रहीन बना देता है।
किन्तु वह ठहर गया मुझे देखकर
कि तुम प्रेम करने के योग्य हो
भोली, मासूम और लज्जाशील स्त्रियाँ
अच्छी लगती हैं पुरुष को
और मैं चुप हो गई
प्रेम में अनुरक्त होकर प्रेम की खातिर
मैंने कहा
बता सकते हो प्रेम क्या है
उसने कहा
यूँ तो प्रेम शब्दातीरेक और अपरिभाषित है
फिर भी यह दो आत्माओं का मिलन है
जहाँ बुद्धि, विवेक और ज्ञान की गुंजाइश न हो
शब्दों का बौना हो जाना भी प्रेम है।
उससे प्रेम की व्याख्या सुनकर मैं प्रसन्न हुई
कि दार्शनिक से प्रेम करना सौभाग्य की बात है।
किन्तु एक दिन बदल गई
उसके प्रेम की परिभाषा
उसने कहा
प्रेम को आत्मा और शरीर में नहीं बांटा जा सकता
पास आओ तुम्हें भोगना चाहता हूँ
मैं स्तब्ध थी
स्त्री प्रेमसिक्त होकर भी
केवल भोग्या है!

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