तैयार होता हूँ,
इत्र लगाता हूँ,
और निकलता हूँ
दुक्ख की ओर।

रास्ते में छपते हैं
तुम्हारी पीठ के छाले मेरी हथेलियों पर
ठेह लगती है इधर उधर
कभी कभी खून भी निकलता है।

होता हूँ
लावे से लबालब ज्वालामुखी
टूट टूट कर गिरता हुआ
जैसे पहाड़ पिघलता है रोज़ थोड़ा थोड़ा

रोना आखिरी क्रिया है।

ये मान लेना चाहिए कि
आँसुओं तक
पहुँचते पहुँचते
आदमी क्षद्म और भ्रम
या तो गँवा चुका होता है
या तज देता है

वैसे क्रियाओं को
कविताओं से ज्यादा
नाटकों में महत्त्वपूर्ण माना जाता है।

एक आदर्श दुनिया में
रोते हुए
या रोने के बाद
आदमी कोई पाप नहीं करता।

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